Thursday, April 9, 2009

प्रश्नोत्तर

मौन हो गई मुखरित रागिनी ,
उर में संताप है व्याप गया।
हाय प्रिये , क्या ये ही चाहा ?

शिथिल हुई नयनों की भाषा,
सिमट गई प्राणों की आशा।
हाय प्रिये क्या ये ही चाहा ?

जन शून्य हुई विस्तृत अवनि,
भाव शून्य यह अन्तस्।
हाय प्रिये क्या ये ही चाहा ?


(और कुछ सालों बाद प्राण-प्रिय ने कहा.....)



क्यूँ मौन हुई मुखरित रागिनी?
कैसा संताप है व्याप गया?
काँप रहे क्यूँ अधर -सुमधुर?
शिथिल क्यूँ नयनों की भाषा?

उठो कि तुम ही हो जग-जननी,
उठो कि तुम हो शक्ति-पुंज।
सिंचित कर लो निज प्राणों को,
अखंड-तेजोमय दिव्य रश्मि से।

स्वयं बनो निज शक्ति-स्त्रोत तुम।
तम हर कर उजास बनों तुम,
मधुमय -मधुरिम श्वास बनों तुम,
मानवता की आस बनों तुम।

7 comments:

Animesh said...

Interesting conversation, but why the delay in response?

Nilima said...

@animesh
The response was (is) always there,I could not hear it.The moment the noise inside us calms down we are able to hear our Atman.

Daroga said...

needless to say ki aap bahut hi accha likhti hain !!!
i mean.. really... awesome poetry hai ye :)
and i have to admit : kuchh shabd sir ke upar se chale gaye

paay laagoon :)

Nilima said...

@ Daroga:
Shukriya and khush rahiye!

just let me know about the difficult words... so that i can help u understand the poem better and will try to use simpler words next time.

Ravish said...

ek aur sundar kavita!

Regards,

seema jyotishi said...

Bahut sahi conversation hai.Sabdo ka chayan bahut accha hai .Congretulation.

Animesh said...

we want more!