Sunday, March 22, 2009

चाहत

ज़िन्दगी सुमधुर तुझसे कुछ पल चुराना चाहती हूँ,
प्रियतम सानिध्य के कुछ पल जुटाना चाहती हूँ।

बनके पाँखी तेरे साथ प्रियतम,मैं विहरना चाहती हूँ।
स्वप्न से सुंदर परों को खोलकर,
संग तेरे अपने परों को तोलकर,
मुक्त -नीलाकाश के उसपार जाना चाहती हूँ।

ज़िन्दगी सुमधुर तुझसे कुछ पल चुराना चाहती हूँ,
प्रियतम सानिध्य के कुछ पल जुटाना चाहती हूँ।

दामिनी बन तेरे साथ प्रियतम मैं दमकना चाहती हूँ।
तुम बनों घनघोर घन ,
बनके मैं चपला चपल,
निश्शब्द शुभ्राकाश को मुखरित बनाना चाहती हूँ।

ज़िन्दगी सुमधुर तुझसे कुछ पल चुराना चाहती हूँ,
प्रियतम सानिध्य के कुछ पल जुटाना चाहती हूँ।

3 comments:

seema jyotishi said...

Prem ka isse accha aawahan bahut dino se nahin padha.Aapki sari kavita ek se ek hain.
Likhta rahiye aur apne bhabon ki barish karte rahiye.

Nilima said...

Thanks a lot bhabhi....hope to post another poem soon.

Unknown said...

great one
arshad