ज़िन्दगी सुमधुर तुझसे कुछ पल चुराना चाहती हूँ,
प्रियतम सानिध्य के कुछ पल जुटाना चाहती हूँ।
बनके पाँखी तेरे साथ प्रियतम,मैं विहरना चाहती हूँ।
स्वप्न से सुंदर परों को खोलकर,
संग तेरे अपने परों को तोलकर,
मुक्त -नीलाकाश के उसपार जाना चाहती हूँ।
ज़िन्दगी सुमधुर तुझसे कुछ पल चुराना चाहती हूँ,
प्रियतम सानिध्य के कुछ पल जुटाना चाहती हूँ।
दामिनी बन तेरे साथ प्रियतम मैं दमकना चाहती हूँ।
तुम बनों घनघोर घन ,
बनके मैं चपला चपल,
निश्शब्द शुभ्राकाश को मुखरित बनाना चाहती हूँ।
ज़िन्दगी सुमधुर तुझसे कुछ पल चुराना चाहती हूँ,
प्रियतम सानिध्य के कुछ पल जुटाना चाहती हूँ।
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3 comments:
Prem ka isse accha aawahan bahut dino se nahin padha.Aapki sari kavita ek se ek hain.
Likhta rahiye aur apne bhabon ki barish karte rahiye.
Thanks a lot bhabhi....hope to post another poem soon.
great one
arshad
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