Saturday, July 31, 2010

मंथन

तेरे निकट आ कर ही जाना ,
विरह -मिलन का खेल अनोखा।
उद्वेलित हैं प्राण पियासे,
अब तुझमें ही खो जाने को।

श्रीचरणों से दूर न करना,
नयनों के दर्पण में रहना।
भवरों के इस विकट जाल में,
निपट अकेली छोड़ न जाना।

अंतर के मंथन से,
तेरे ही दर्शन से,
जीवन ने पा लिया है,
एक अनोखा अर्थ।

कैसे हो जाने दूँ व्यर्थ,
उस सारी पीड़ा को?
जिस ने हर ली सारे बंधन,
मुक्त हुआ ये बंदी-मन॥

3 comments:

Animesh said...

Awesome poem mom! I remember you sharing it with us when we were kids. Keep it up!

Nilima said...

Thanks betu!
The credit goes to you son for showing me this platform to share my thoughts.

seema jyotishi said...

Very beautiful poem with very deep meanings.Keep it up babyji.....