तेरे निकट आ कर ही जाना ,
विरह -मिलन का खेल अनोखा।
उद्वेलित हैं प्राण पियासे,
अब तुझमें ही खो जाने को।
श्रीचरणों से दूर न करना,
नयनों के दर्पण में रहना।
भवरों के इस विकट जाल में,
निपट अकेली छोड़ न जाना।
अंतर के मंथन से,
तेरे ही दर्शन से,
जीवन ने पा लिया है,
एक अनोखा अर्थ।
कैसे हो जाने दूँ व्यर्थ,
उस सारी पीड़ा को?
जिस ने हर ली सारे बंधन,
मुक्त हुआ ये बंदी-मन॥
Saturday, July 31, 2010
Subscribe to:
Posts (Atom)